आज ज़िक्र नही करुँगी उस दास्तान ए इश्क़ का, जो हमेशा से करती आई हूँ
क्यूंकि इश्क़ से जो अश्क बहे, वो भी फीके पड़ गए हैं उन नए अश्कों के आगे
जो इन दिनो बरस रहे हैं।
यह अश्क बहे रहे हैं उन शवों को देख कर जो सींची मिट्टी में घुल रही हैं या क़ब्रों में डुल रही हैं,
मगर शव है किसका यह भी मालूम नही है।
बदन थैलियों में बँट गए हैं के जैसे बाज़ार लग गया हो, बोलते हुए भी शर्म आ रही है, मगर क्या सर्कार सिर झुका रही है? और तो और इख़्तियार पाने को रैलियाँ चला रही है।
अब तुम बताओ कैसे करूं मैं ज़िक्र इश्क़ का जब मन मे फ़िक्र सता रही है।
यहाँ इंसान कट रहे रहे हैं, इस माहामारी से, मगर कुम्भ और तब्लीगी जमात की तकरारी है,
मीडिआ दिमाग को बेच खाए, एक गधे की सवारी है।
फिर कुछ ऐसे लोग हैं, जो माॅत का डिमांड- सपलाय खेल रहे हैं और काला ऑक्सीजन बेच रहे है।
क्यापता था वा इतनी महंगी पड जाएगी किसी के माँ, बाप, बहन के लिए जो साँसे हाँफ़ रहे हैं,
परिवार वाले भीख माँग रहे हैं और दुकानदार उनको हाँक रहे हैं।
कैसे करूं मैं ज़िक्र इश्क़ का, क्यों करूं मैं ज़िक्र रांझे और हीर का,
जब ज़िंदा रहना ही रह गया है खेल तकदीर का?
मेरी तो तकदीर अच्छी है, तुमहारे सामने शब्द बयाँ कर रही हूँ, प्रिविलेज है ना इसलिए निखर रही हूँ।
मगर मेरा प्रिविलेज भी हार गया, जब मैने अपने बाबा को देखा जो लड़ रहे थे इस बीमारी से और मैं चार दीवारी में बंद थी बस ख़ौफ़ मे। यह ख़ौफ़ उनकी खाँसी से शुरू हो जाता था और गूंजने लग जाता था, मगर उस लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं निकला जाता था। अब तो छूना भी गुनाह हो गया है, अब तुम बताओ कैसे करूं मैं ज़िक्र इश्क़ का?
इश्क़ मे तो उम्मीद होती है ना, यहाँ तो खाली अंधेरा दिख रहा है, आधा-पूरा सब बिखर रहा है।
बस दुआ है के अर्चिशा आसमान में फ़ैले और ना रोग की ज़ंजीर हो ,
फिर दास्तान ए इश्क़ सुनाती, एक मंच पर तस्वीर हो।

Comments